Girish Chandra Tiwari (Girda) का जीवन परिचय।
गिरीश चंद्र तिवारी (गिर्दा) उत्तराखंड राज्य के एक प्रेणादायी व्यक्तित्व थे, वह एक गीतकार, गायक, कवी, प्रकर्ति प्रेमी, साहित्यकार और एक सामाजिक कार्यकर्त्ता थे, उन्हें उत्तराखंड का जन कवी भी कहा जाता है। गिरीश चंद्र तिवारी (गिर्दा) का जन्म 09 सितम्बर 1945 में उत्तराखंड राज्य में स्तिथ अल्मोड़ा जनपद के ज्योली गाँव में हुवा था। उनके पिता का नाम हंसा दत्त तिवारी थता उनकी माता का नाम जीवन्ति देवी था।
गाँव के वातावरण में रहते हुए बचपन से ही उनका कविताएँ लिखने और गायन की ओर रुझान था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा राजकीय इंटर कॉलेज अल्मोड़ा में संपन्न की और अपनी प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही उनका संपर्क शिक्षक के रूप में चारु चंद्र पाण्डे जी से हुवा, जिनहोने उनके व्यक्तित्व में काफी गहरा असर डाला।
उन्हें गायन मंचो पर जाना और उस समय के लोक गायकों को सुन्ना बहुत पसंद था, इसी तरह से वे गायन मंचो पर जाते रहे और उन्हें उस समय के उच्च गायको जैसे मोहन उप्रेती, ब्रजेन्द्र लाल शाह को सुनने का मौका भी मिलता रहा जिनसे उन्हें काफी प्रेणा मिलती थी। फिर युवा अवस्था में वे रोजगार की तलाश में लखनऊ, पीलीभीत, अलीगढ इत्यादि शहरों में रहे जहाँ उन्होंने लोकनिर्माण विभाग और बिजली विभाग में नौकरी की और फिर 1964 में उन्हें गीत और नाटक विभाग लखनऊ में स्थाई नौकरी मिल गई।
अब उनका आकाशवाणी लखनऊ में आना जाना शुरू हो गया था और उनका संपर्क शेरदा अनपढ़, घनश्याम सैलानी, उर्मिला कुमार थपलियाल जैसे दूसरे कई रचनाकारों से होने लगा था।
लखनऊ आकाशवाणी में उन्होंने कई रेडियो प्रसारणों में अपने कार्यक्रम प्रस्तुत किए, जिनमे मोहिल माटी, गंगाधर, होली, राम, कृष्ण इत्यादि नृत्य नाटक शामिल थे, साथ ही उन्होंने नगाड़े खामोश हैं और घनुष यज्ञ जैसे और भी कई नाटकों को लिखा और उनका निर्देशन भी किया, फिर 1967 में वह बृजेन्द्र लाल शाह के कहने पर सरोवर नगरी नैनीताल आ गए।
वह बचपन से ही बृजेन्द्र लाल शाह जी के संपर्क में थे और उनसे काफी प्रभावित रहते थे। नैनीताल में बृजेन्द्र लाल शाह जी से उन्हें कई लोक धुनों और संगीत का ज्ञान प्राप्त हुवा यानि बृजेन्द्र लाल शाह जी से ही उन्हें संगीत का चारित्रिक विश्लेषण सीखने को मिला।
यहाँ पर उन्होंने कई कुमाउनी गीतों और धुनों का भी हिंदी अनुवाद किया और कुमाउँनी कविताओं का संग्रह “शिखरों के स्वर” को भी प्रकाशित किया, इस्का दूसरा संस्करण वर्ष 2009 में पहाड़ संस्था द्वारा प्रकाशित किया गया था।
इसी दौरान 1974 में जंगलों को अंधाधुन्द काटे जाने के विरोध में चिपको आंदोलन शुरू हो गया था और फिर 1977 में जंगलात की लकड़ियों की नीलामी के विरोध में भी एक जन आंदोलन खड़ा हुवा, इन आंदोलनों ने पुरे विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और गिर्दा भी इस आंदोलन से एक जनकवी के रूप में जुड़ गए।
फिर उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से “आज हिमाल तुमन कें धत्यूँछ, जागो-जागो हो मेरा लाल‘ नीलामी का विरोध करने वाले युवाओं को ऊर्जा प्रदान की। इसी तरह से शराब विरोधी आंदोलन और 1994 में राज्य आंदोलन में भी गिर्दा अपने गीतों,कविताओं और नाटकों के माध्यम से सक्रीय रहे,उन्होंने कई सभाएं की और लोगो को संघर्ष करने के लिए जागरुक किया,तथा राज्य निर्माण के बाद भी वह अपने गीतों के माध्यम से हमेशा सक्रीय रहे।
उत्तराखंड के इस जनकवि श्री गिरीश चंद्र तिवारी “गिर्दा” का 22 अगस्त 2010 में बीमारी का चलते देहांत हो गया। जिस तरह से उन्होंने अपने गीतों,नाटकों,साहित्य और विचारों के माधयम से लोगो का मार्गदर्शन किया वाकई में उनका व्यक्तितीव बहुआयामी व विराट था।
अंत में उनका एक गीत जिसमें उन्होंने उत्तराखंड के एक अच्छे भविष्य का सपना देखा था और आप भी सोचिये क्या यही आज जो दिख रहा है, वह उनका सपना था।
“ततुक नी लगा उदैख, घुनन मुनई न टेक”
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
ततुक नी लगा उदैख, घुनन मुनई न टेक
जैता कभि न कभि त आलो, ऊ दिन यो दुनी में….
जै दिन काटुलि रात ब्यालि, पौ फाटला दो कङालो–२
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि त आलो, ऊ दिन यो दुनी में….
मुझे उम्मीद है गिरीश चंद्र तिवारी (गिर्दा ) का यह जीवन परिचय आपको काफी प्रेणादायक लगा होगा और आप भी उनके नक़्शे कदम पर चल कर अपने राज्य के लिए कुछ अच्छा काम करेंगे। Girish Chandra Tiwari biography in Hindi
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