(मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय) (Munshi premchand jivan parichay in Hindi)
नाम :- धनपत राय श्रीवास्तव
जन्म :- 31 जुलाई 1880
पिता :- अजायब राय
माता :- आनंदी देवी
पत्नी :- शिवरानी देवी
मुंशी प्रेमचंद का प्रारंभिक जीवन
मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 में वाराणसी (बनारस) के पास लमही ग्राम में हुवा था, उनके पिता का नाम अजायब राय था, जो की डांक घर में क्लर्क थे, थता उनकी माता का नाम आनंदी देवी था, वे एक ग्रहणी थीं। माता पिता ने उनका नाम धनपत राय रखा था, पर घर में उन्हें प्यार से नवाबराय बोला जाता था, इसी कारण मुंशी जी ने अपना प्रथम उपनाम नवाब राय रख लिया, लेकिन फिर कुछ समय बाद उन्होंने अपना उपनाम बदल कर मुंशी प्रेमचंद कर दिया।
मुंशी प्रेमचंद जब सात (7) साल के हुवे तब वे पढ़ने के लिए लालपुर मदरसा जाने लगे जहाँ उन्होंने उर्दू और फ़ारसी सीखी, और जब वे 8 साल के हुवे तब उनकी माता जी का लंबी बीमारी के कारण देहांत हो गया। इसके बाद मुंशी जी अपनी दादी माँ के साथ रहने लगे, पर कुछ समय बाद उनकी दादी माँ का भी देहांत हो गया, जिसके बाद मुंशी जी अकेले पड़ गए। उनके पिता भी काम में व्यस्त रहने लगे और कुछ समय बाद उनके पिता का तबादला गोरखपुर हो गया, जहाँ उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली।
बचपन में एक तम्बाकू बेचने वाले की दुकान पर मुंशी जी ने फ़ारसी भाषा की तिलिस्म-ऐ-होशरुबा नाम की कहानी सुनी, जिस से उनकी रूचि काल्पनिक कहानियों की तरफ बढ़ने लगी, इसी के चलते वे एक किताबों के थोक विक्रेता के यहाँ किताबें बेचने का काम करने लगे, जहाँ उन्हें कहानियों की ढेरों किताबें पढ़ने को मिल जाती थी। किताबें बेचने के साथ-साथ वे इंग्लिश सीखने के लिए मिशनरी स्कूल भी जाने लगे
मुंशी प्रेमचंद का वैवाहिक जीवन
मुंशी जी का विवाह 1895 में हुवा जब वे मात्र 15 साल के थे और नवीं (9) कक्षा में पढ़ते थे। उनका विवाह उनकी दूसरी माताजी के पिता के पसंद की लड़की से हुवा जो की एक बहुत बड़े जमींदार की बेटी थीं और उम्र में मुंशी जी से बड़ी थी।
मुंशी जी की शादी 1905 तक ही चल पाई जिसके बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली, उनकी दूसरी शादी एक बाल विधवा से हुई जिनका नाम शिवरानी देवी था जो की फतेहपुर के नजदीक एक ग्राम के जमींदार की बेटी थी। उस समय में विधवा पुनर विवाह एक बड़ी बात होती थी जिस वजह से मुंशी जी को काफी सामाजिक परेशानियों का भी सामना करना पड़ा था।
मुंशी प्रेमचंद की शिक्षा
1890 में मुंशी जी ने बनारस के क्वींस कॉलेज में दाखिला लिया, और 1897 में उनके पिता की लंबी बीमारी के कारण देहांत हो गया, फिर भी वे सेकंड श्रेणी से पास हो गए। क्योंकि कॉलेज प्रथम श्रेणी को ही छात्रवृति देता था, इस लिए मुंशी जी ने सेंट्रल हिन्दू कॉलेज में दाख़िला लेने का सोचा, पर अंकगणित अच्छा ना होने के कारण वहाँ उनका दाखिला ना हो सका और बाद में मुंशी जी ने 1919 में अलाहाबाद से अपनी बीए की डिग्री ली।
मुंशी प्रेमचंद की नौकरियाँ
प्रेमचंद जी की पहली नौकरी बनारस के एक वकील के बेटे को पढ़ाने की थी, जिसके लिए उन्हें 5 रूपया महीना मिलता था, जहाँ वे वकील के घोड़ो के अस्तबल में रहते थे, ताकि पैसे की बचत की जा सके और वे घर पैसे भेज सकें और इस बीच उन्होंने अपनी पढाई भी जारी रखी। 1899 में एक किताबों की दुकान में मुंशी जी को चुनार के एक मिशनरी स्कूल के हेडमास्टर मिले जिन्होंने मुंशी जी को अपने स्कूल में अध्यापक की नौकरी दी जिसके लिए उन्हें 18 रूपया महीना मिलने लगा।
मुंशी जी ने नौकरी ले ली और साथ ही वे वकील के बेटे को भी पढ़ाते रहे, फिर 1900 में उन्हें बहराइच के सरकारी जिला स्कूल में सह अध्यापक की नौकरी मिली जिसके लिए उन्हें 20 रूपया महीना मिले लगा, लेकिन यहाँ से तीन महीने बाद ही उनका तबादला प्रताप गढ़ के जिला स्कूल में हो गया जहाँ वे प्रशाशक के बंगले पर रहते हुवे उनके बेटे को पढ़ाने लगे।
प्रताप गढ़ से मुंशी जी को प्रशिक्षण के लिए अलाहाबाद और उसके बाद कानपूर जाना पड़ा जहाँ वे चार साल रहे, मई 1905 से जून 1909 तक। यहाँ उनकी मुलाकात उर्दू पत्रिका “ज़माना” के संपादक मुंशी दया नारायण निगम से हुई जिनके लिए आगे चलकर मुंशी प्रेमचंद जी ने बहुत से लेख लिखे। 1909 में मुंशी जी की बदली महोबा हो गई, उसके बाद हमीरपुर हुई जहाँ के स्कूल में उन्होंने सब डिप्टी इंस्पेक्टर का पद संभाला।
इसके बाद 1916 में उनकी पद्दौन्नति हुई और उन्होंने गोरखपुर के उच्च राजकीय विद्यालय में सह अध्यापक का पद संभाला, 1921 में मुंशी जी विद्यालय के उप निरक्षक पद पर आसीन हुवे, पर 1921 में उनका स्वास्थ बिगड़ने लगा जिसके बाद उन्होंने अपने दो बेटों और गर्ववती पत्नी का ध्यान रखने के लिए नौकरी से त्याग पत्र ले लिया।
मार्च 1930 में प्रेमचंद जी ने हंस नाम की एक साहित्यिक राजनितिक साप्ताहिक पत्रिका की शुरुवात की, इस पत्रिका का उद्देश्य भारतियों को अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करना था। यह पत्रिका अपने उत्तेजित राजनैतिक विचारों के लिए जानी जाती थी, पर इससे उन्हें आर्थिक रूप से फायदा नहीं हुवा, इसके कुछ समय बाद प्रेमचंद जी ने एक दूसरी पत्रिका को संपादित किया और वह भी नुकसान में रही।
1931 में मुंशी जी ने कानपूर के मारवाड़ी कॉलेज में अध्यापक का स्थान संभाला, शासन प्रबंधन और मुंशी जी के बीच भेद होने के कारण उन्होंने जल्द ही इस नौकरी से त्याग पत्र दे दिया, फिर वे बनारस आ गए जहाँ मुंशी जी मर्यादा पत्रिका के संपादक बन गए। मुंशी जी ने थोड़े समय के लिए बनारस के एक लोकल स्कूल काशी विध्यापीठ में हेडमास्टर का पद संभाला लेकिन स्कूल के बंद होने के बाद वे लखनऊ चले गए जहाँ वे माधुरी पत्रिका के संपादक बन गए।
फिर मुंशी जी 31 मई 1934 को बॉम्बे आ गए और हिंदी सिनेमा जगत में वे पठ कथा लेखन का काम करने लगे, जिसके लिए उन्हें सालाना 8000 रूपया मिलता था। यहाँ उन्होंने मजदूर नाम की एक कहानी लिखी जिस पर एक फिल्म भी बनी, इस फिल्म में गरीब मजदूरों के हालातों के बारे में दिखाया गया था की कैसे उद्योगपति मजदूरों का फायदा उठाते हैं। इस फिल्म में प्रेमचंद जी ने एक छोटा सा किरदार भी निभाया था जिसमे वे मजदूरों के नेता के किरदार में थे, लेकिन कुछ समय बाद उन्हें सिनेमा जगत व्यवसायिक का माहौल अच्छा नहीं लगा जिसके कारण उन्होंने 4 अप्रैल 1935 को बॉम्बे छोड़ दिया।
मुंशी प्रेमचंद की लघु कथाएँ और उपन्यास hindi
1914 में प्रेमचंद जी ने बतौर हिंदी लेखक अपना लेखन का कार्य प्रारंभ किया, अभी तक मुंशी जी उर्दू के प्रतिष्ठ काल्पनिक उपन्यासकार बन चुके थे, उन्होंने 300 लघु कथाएँ और लगभग 1 दर्ज़न से ज्यादा उपन्यास थता कई निबंध और बहुत से अंग्रेज़ी लेखकों के कार्य का हिंदी अनुवाद भी किया।
प्रेमचंद जी ने अपनी पहली कहानी गोरखपुर में लिखी थी जो कभी छपी ही नहीं और अब वो लुप्त हो चुकी है। वह कहानी एक लड़के और एक निम्न वर्ग की लड़की के बारे में थी जिसमे लड़का उस लड़की के प्यार में पड़ जाता है, इस कहानी का किरदार मुंशी जी के चाचा पर आधारित था।
उनका पहला लघु उपन्यास असरार-ए-मा-आबिद (हिंदी में देवस्थान रहस्य) था, जिसमे मुंशी जी ने पुजारी द्वारा गरीब महिला के यौन शोषण का अन्वेषण किया था। यह कहानी बनारस के एक उर्दू साप्ताहिक पत्रिका आवाज़-ऐ-खल्क में अक्टूबर 8 1903 से फरवरी 1905 तक छपी।
आलोचकों ने मुंशी जी की आलोचना करते हुवे यह कहा की उनके पहले काम में अनुभव की कमी साफ़ दिखाई देती है , जो की सुव्यवस्थित नहीं था, अछि पटकथा की कमी दिखी और जिसमे कुछ नया नहीं लगा। प्रकाश चंद्र गुप्ता ने मुंशी जी के लेखन को अपरिपक्व कहा, जो उनका ज़िन्दगी को सिर्फ अच्छा या बुरा देखने की प्रवर्ति को दिखाता था।
1905 में राष्ट्रवादी सक्रियता से प्रभावित हो कर मुंशी प्रेमचंद ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता गोपाल कृष्ण गोखले के राजनैतिक आज़ादी प्राप्त करने के तरीकों की आलोचना करते हुवे, बाल गंगाधर तिलक के उपायों का समर्थन किया और अपनी पहली कहानी “दुनियाँ का अनमोल रतन” लिखी जो 1907 में ज़माना पत्रिका में छपी। प्रेमचंद जी की शुरवाती कहानियाँ देशभक्ति से भरी हुई थी, जिन पर भारत में होने वाले आज़ादी के आंदोलनो का असर साफ़ दिखाई देता था।
प्रेमचंद जी का दूसरा लघु उपन्यास “हमखुरमा -ओ-हमसवाब” हिंदी में “प्रेमा” था, जो बाबू नवाब राय बनारसी नाम से 1907 में छपा, जिसमे उन्होंने विधवा पुनर्विवाह जैसे मुद्दे के बारे में लिखा। 1907 में मुंशी जी का एक ओर लघु उपन्यास “कृष्णा” बनारस के मेडिकल हॉल प्रेस में छपा, जो की 142 पन्नों का था। इसमें महिलाओं का गहनों की तरफ आकर्षण को दिखाया गया है, यह उपन्यास अब खो गया है।
अप्रैल -अगस्त 1907 में प्रेमचंद जी की कहानी रूठी रानी श्रृंखला के रूप में ज़माना पत्रिका में छपी और 1907 में ही जमाना पत्रिका ने प्रेमचंद जी की पहली लघु कथा का संग्रह सोज़-ऐ-वतन भी छापा, जिस में बाद में प्रतिबंध लगा दिया गया, क्योंकि इसमें चार कहानियाँ थीं जो भारतीयों को अपने राजनैतिक आज़ादी के लिए प्रेरित करती थी।
1909 तक अंग्रेजी सरकार की नजर में भी ये सब आ गया था, जिससे सरकार ने प्रेमचंद जी के घर पर छापा मार कर सोज़-ऐ-वतन की 500 प्रतिलिपियों को जला दिया। 1915 में “सौत” से प्रेमचंद ने हिंदी लेखन में कदम रखा, ये प्रेमचंद जी की पहली हिंदी की लघु कथा थी, जो सरस्वती पत्रिका में छपी।
1919 में उनके चार उपन्यास प्रकाशित हुवे, जिसमे सभी 100 पेज के थे, फिर 1919 में ही प्रेमचंद जी का पहला बड़ा उपन्यास “सेवा सदन” हिंदी में छपा जिसे उन्होंने बाजार-ऐ-हुस्न नाम से उर्दू में लिखा था, इस उपन्यास से प्रेमचंद को एक अलग और नई पेहचान मिली।
1922 में उन्होंने “प्रेमाश्रम” उपन्यास लिखा जिसकी कहानी गरीबों पर हो रहे ज़मीदारों के शोषण पर आधारित थी, फिर 1923 में मुंशी जि ने अपना प्रिंटिंग प्रेस और पब्लिशिंग हाउस बनारस में खोला जिसका नाम “सरस्वती प्रेस ” रखा गया।
1924 में उन्होंने अपनी ही पब्लिकेशन में “रंगभूमि” का प्रिंट किया, जिसमे सूरदास नाम के एक अंधे भिकारी की कहानी है। इस पर आलोचकों ने उनकी काफी प्रशंसा की और कहा की वे एक शानदार सामाजिक विश्लेषक के रूप में उभरे हैं, इस उपन्यास ने प्रेमचंद जी के लिखने के तरीके को एक अच्छी खासी पहचान दिला दी। इसके बाद 1925 में (निर्मला) फिर 1927 में (प्रतिज्ञा) ने उनके पहले के सभी उपन्यासों को पीछे छोड़ दिया था।
“निर्मला” में दहेज़ प्रथा के बारे में थता प्रतिज्ञा में विधवा पुनर्विवाह के बारे में लिखा गया है। 1928 में उपन्यास “गबन” प्रकाशित हुई जिसकी कहानी मध्यम वर्ग और उनकी बढ़ती जरूरतों को ध्यान में रखते हुवे लिखा गया था फिर 1931 में उन्होंने “कर्मभूमि” उपन्यास लिखा।
मुंशी प्रेमचंद के प्रमुख उपन्यास
सेवासदन 1918
निर्मला 1925
रंगभूमि 1925
कायाकल्प 1927
गबन 1928
कर्मभूमि 1932
गोदान 1936
मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख कहानियाँ
कफ़न
ईदगाह
दो बेलों की कथा
पूस की रात
बूढी काकी
पंच परमेश्वर
मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु
1936 में प्रेमचंद जी लखनऊ में प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन के पहले अध्यक्ष चुने गए थे, लेकिन पिछले कुछ समय से उनकी तबियत भी खराब चल रही थी जिसके कारण 8 अक्टूबर 1936 को उनका देहांत हो गया। प्रेमचंद जी का आख़री काम “गोदान” था जिसे उन्होंने 1936 में ही पूरा किया था।
गिरीश चंद्र तिवारी जी की जीवनी